21 जुलाई: “शहीद दिवस” या एक रंग-बिरंगा त्योहार? — एक आलोचनात्मक विश्लेषण






1993 के 21 जुलाई को कोलकाता की सड़कों पर एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस की गोलीबारी में मारे गए 13 युवा कार्यकर्ताओं की याद में हर साल मनाया जाता है “शहीद दिवस”। लेकिन आज सवाल उठता है — क्या वास्तव में शहीदों को श्रद्धांजलि दी जा रही है, या यह दिन अब एक राजनीतिक मेले और उत्सव में तब्दील हो चुका है?




🎶 नाच-गाना और मेला: श्रद्धांजलि या उत्सव?

इस साल धर्मतल्ला, मौलाली, एस्प्लानेड जैसे क्षेत्रों में बड़े-बड़े रंगीन मंच, पोस्टर-बैनर, ढोल-नगाड़े, डीजे, लोकनृत्य और ‘झुमुर’ नृत्य देखने को मिला।
पूरे वातावरण में गंभीरता या संवेदना नहीं, বরং एक त्योहार की चहल-पहल नज़र आई। ये दृश्य किसी शहीद की स्मृति सभा नहीं, बल्कि एक राजनीतिक कार्निवल की तरह लग रहा था।
👥 “आप क्यों आए हैं?” — पूछने पर मिलते हैं अजीब उत्तर
मेदिनीपुर, बीरभूम, कोचबिहार, मालदा, दक्षिण 24 परगना जैसे जिलों से आए कई कार्यकर्ताओं से पूछने पर जवाब मिला:
> “भैया, रैली में आए हैं, वैसे थोड़ा कोलकाता घूम भी लेंगे।”
“हर साल तो मस्ती होती है — रात से भात-मांस, ट्रेन-मेट्रो की सवारी…”
“हमें सही में नहीं पता 21 जुलाई क्यों मनाया जाता है, नेता ने कहा था आओ, तो आ गए।”
इन उत्तरों से साफ ज़ाहिर होता है कि कई लोगों को इस दिन के असली महत्व की जानकारी नहीं है, और वे महज़ खाने, घूमने और मस्ती के लिए आते हैं।
🥁 शहीद दिवस या शक्ति प्रदर्शन?
नेताओं के भाषण भी अब शहीदों की याद से हटकर केंद्र सरकार और भाजपा के खिलाफ नारेबाजी और 2026 के चुनाव की रणनीति पर केंद्रित हो चुके हैं।
बंगाली भाषा और पहचान को लेकर भावनात्मक अपील
प्रधानमंत्री मोदी पर सीधा हमला
अभिषेक बनर्जी को भावी नेता के रूप में प्रोजेक्ट करना
यानी शहीदों की याद अब पृष्ठभूमि में, और आगे है राजनीतिक प्रदर्शन।
🍗 खाना, बस, होटल — सुविधाएँ भरपूर, मगर उद्देश्य कहां?
विभिन्न जिलों से आए कार्यकर्ताओं के लिए —
ट्रांसपोर्ट (बस, ट्रेन, टोटो) की व्यवस्था
रात में ठहरने के लिए हॉल या टेंट
भरपेट खाना (भात, मांस, अंडा, पानी)
इन सुविधाओं की वजह से कई लोग इसे एक पिकনিক या भ्रमण का अवसर मानते हैं, न कि कोई आंदोलन।
🧭 निष्कर्ष: क्या हम शहीदों की कुर्बानी को भूल रहे हैं?
21 जुलाई का असली उद्देश्य था — “वोटिंग में पारदर्शिता, लोकतंत्र की रक्षा और नागरिक अधिकारों की मांग”। लेकिन आज की रैली में क्या ये आवाज़ें सुनाई देती हैं?
एक वरिष्ठ नागरिक की टिप्पणी:
> “अब इस मंच पर शहीदों की चीख नहीं, सिर्फ़ ढोल की आवाज़ सुनाई देती है। श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि सेल्फी की होड़ होती है।”
✍️ निष्कर्ष:
आज का 21 जुलाई अब एक श्रद्धांजलि सभा नहीं, बल्कि:
एक राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन
जिलों से आए कार्यकर्ताओं के लिए मनोरंजन और भ्रमण
नाच-गाना, खाना-पीना और भाषणों
का आयोजन बन चुका है।
तो क्या यह अब “शहीद दिवस” है — या महज एक राजनीतिक रंगमंच?
📰 ২১ জুলাই শহীদ দিবস না কি উৎসব?—বাস্তব চিত্রের এক সমালোচনামূলক বিশ্লেষণ:
১৯৯৩ সালের ২১ জুলাই পুলিশের গুলিতে নিহত ১৩ জন তরুণ কর্মীর স্মৃতিতে পালিত হয় “শহীদ দিবস”। কিন্তু আজকের দিনে দাঁড়িয়ে প্রশ্ন ওঠে—আসলেই কি শহীদের প্রতি শ্রদ্ধা জানানো হচ্ছে, না কি এই দিনটি ধীরে ধীরে এক রাজনৈতিক আনন্দ মেলায় পরিণত হয়েছে?
🎶 নাচ-গান, উৎসব ও আনন্দ: শহীদের স্মরণ না রঙিন সাজ?
এবারের ২১ জুলাই-এ ধর্মতলা, মৌলালি, এসপ্ল্যানেড চত্বরে দেখা গেল ব্যানার-পোস্টারে মোড়া রঙিন মঞ্চ, ঢাক-ঢোল, ডিজে বাজছে, কেউ গাইছে তৃণমূলের থিম সং, কেউ আবার ফোক ডান্স বা ‘ঝুমুর’ পরিবেশনায় ব্যস্ত।
এই চিত্র দেখে মনে হয় না শহীদদের প্রতি শ্রদ্ধার অনুষ্ঠান চলছে—বরং মনে হয় কোনও বড় রাজনৈতিক উৎসব।
👥 “কেন এসেছ?”—জিজ্ঞাসাতেই বেরিয়ে আসছে বাস্তবতা
মেদিনীপুর, বীরভূম, কোচবিহার, মালদা, দক্ষিণ ২৪ পরগনা থেকে আসা বহু কর্মী ও যুবকরা জানান—
> “দাদা, মিছিল করতে এসেছি, একটু কলকাতা ঘুরে নেব।”
“২১ তারিখ মানেই তো দারুণ মজা, রাত থেকে ভাত-মাংস, মেট্রো ঘোরা…”
“আমরা ঠিক জানি না শহীদ দিবস কিসের, নেতা বলেছে আসতে তাই এসেছি।”
এই উত্তরগুলো স্পষ্ট করে দেয়—আন্দোলনের তাৎপর্য অনেকের কাছেই অজানা। অধিকাংশ এসেছেন ‘ঘোরা’, ‘ভাত-মাংস খাওয়া’ ও ‘কলকাতা ভ্রমণ’-এর আনন্দে।
🥁 শহীদ দিবস না রাজনৈতিক শক্তি প্রদর্শন?
শুধু সাধারণ কর্মীরাই নয়, দলীয় নেতারাও এবার এই মঞ্চকে ব্যবহার করছেন ২০২৬ সালের ভোটের প্রস্তুতি ও ভাষাগত রাজনীতি চালাতে।
বাংলাভাষার জন্য ‘সংবিধান বদলের’ ডাক
মোদী সরকারের বিরুদ্ধে বিক্ষোভ
অভিষেক বন্দ্যোপাধ্যায়ের ‘পরবর্তী নেতৃত্বের’ ইঙ্গিত
অর্থাৎ, শহীদদের স্মরণ নেপথ্যে, সামনে উঠে আসছে রাজনৈতিক প্রচার, ভোটের কৌশল আর দলের শক্তি প্রদর্শন।
🍗 খাবার, বাস, হোটেল: একাধিক সুবিধা, কিন্তু মূল উদ্দেশ্য কোথায়?
বিভিন্ন জেলা থেকে আগত কর্মীদের জন্য—
বাস, ট্রেন ও ভ্যানের ব্যবস্থা
হোটেল বা খোলা আকাশে থাকার বন্দোবস্ত
ভাত-মাংস, ডিম, সবজি, জল বিতরণ
এইসব পরিষেবা অনেক ক্ষেত্রেই উৎসাহের দিক হয়ে দাঁড়িয়েছে, আন্দোলনের উদ্দেশ্য নয়।
🧭 শেষ কথা: শহীদদের আত্মত্যাগ ভুলে গেলাম?
২১ জুলাইয়ের মর্মবাণী ছিল “ভোটে স্বচ্ছতা, গণতন্ত্র ও নাগরিক অধিকার রক্ষা”। আজ সেই বার্তা কতটা উচ্চারিত হয়?
সাম্প্রতিক চিত্র দেখে এক প্রবীণ নাগরিক বলেন:
> “এই মঞ্চে এখন আর শহীদের কান্না নেই, আছে ঢাক-ঢোলের শব্দ। স্মরণ নেই, আছে সেলফি তোলার ভিড়।”
✍️ উপসংহার:
২১ জুলাই আজ আর শহীদের রক্তের আহ্বানে পালিত হচ্ছে না, বরং তা হয়ে উঠেছে:
রাজনৈতিক শক্তি প্রদর্শনের উৎসব
দলে দলে আসা কর্মীদের জন্য এক আনন্দ ভ্রমণ
নাচ, গান ও খাওয়া-দাওয়ার আয়োজন
প্রশ্ন রয়ে যায়—”শহীদ দিবস” না কি শুধুই এক রাজনৈতিক রঙিন মিছিল?
