कोरोना और लॉकडाउन के पश्चात परिस्थितियां कुछ यूं बनती जा रही है कि आदमी अपनी मूल स्वाभाविक प्रकृति के विपरीत घरों में नजरबंद सा होने को मजबूर है। इसी विडंबना पर पेश है खांटी खड़गपुरिया तारकेश कुमार ओझा की चंद लाइनें ….
मेहनतकश रो रहे ….!!
तारकेश कुमार ओझा
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घरों में रहना ही अब हो गया काम
दुनिया का दस्तूर कब बदल गया हे राम
आदमी तो आदमी जानवर भी भूखे सो रहे
निठल्लों का पता नहीं मेहनतकश रो रहे
ना एंबुलेंस की कांय – कांय
ना पुलिस गाडियों की उड़े धूल
बस्तियों में बरसे सुख – चैन
मंदिरों में श्रद्धा के फूल
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