जज्बात जाने कब के संगसार हो गए / फिर किसलिए वो मेरे तलबगार हो गए

825
Advertisement
Advertisement
Advertisement
Advertisement
Advertisement
Advertisement
Advertisement
Advertisement
Advertisement
Advertisement

एक ग़ज़ल

जज्बात जाने कब के संगसार हो गए
फिर किसलिए वो मेरे तलबगार हो गए

हम ठीक थे जो सहते रहे बेजुबां सितम
मुंह हमने खोल दी तो गुनहगार हो गए

कल तक तो मेरी बात कोई बात नहीं थी
फिर यूं हुआ हम आपके हथियार हो गए

इस गांव मे तो आए थे मेहमान की तरह
बस जी लगा तो पक्के रहनिहार हो गए

मिलते रहे हैं रंजो गम दरवेश दर ब दर
हमने जो छू लिया इन्हें, अशआर हो गए

आशुतोष सिंह
आद्रा, 9934510298

Advertisement
Advertisement
Advertisement

For Sending News, Photos & Any Queries Contact Us by Mobile or Whatsapp - 9434243363 //  Email us - raghusahu0gmail.com